Saturday, November 23, 2019

भारतीय सिनेमा विविध स्वरूप और आयाम सिनेमा में महिलाओं के योगदान के विशेष संदर्भों में

हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार  का कहना है - “साहित्य समाज का दर्पण है”। यक़ीनन साहित्य समाज का दर्पण होता है परंतु उसी के साथ साथ जब हम समाज के एक अन्य पहलू सिनेमा पर बहस करते हैं तो सिनेमा को भी समाज का तथा साहित्य का दर्पण माना जाना चाहिए। अधिकाँश फिल्मकारों का भी मानना रहा है कि चूँकि सिनेमा का मूल उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना है। अतैव साहित्यिक कृतियों के जरिये दर्शकों की अपेक्षाओं  को पूरा करना कठिन हो जाता है फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो जन जन से जुड़ा है इसलिए फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों को फिल्माने में थोड़ी बहुत छूट भी ली है। तो कई बार लेखकों ने अपनी कृति के साथ खिलवाड़ करने के भी आरोप प्रत्यारोप लगाये हैं। लेकिन इस पक्ष का दूसरा पहलु यह भी है कि फिल्म के माध्यम से साहित्यिक रचनाओं को बड़े पैमाने पर पहचान भी मिलती रही है। भारतीय सिनेमा के एक शताब्दी वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद इस बात का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। यूँ तो 40,50 और 60 के दशक के सिनेमा को भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है लेकिन उस दौरान साहित्य से सम्बंधित फ़िल्में बहुत ही कम बना करती थीं। जबकि आज इनकी माँग भी बढ़ने लगी हैं  मिहिर पंड्या लिखते हैं सिनेमा मुझे सिखाता है कि हर कहानी अपने भीतर जिंदगी के सारे रंग समेटे होती है। आपकी अपनी कहानी ही दरअसल सबकी कहानी होती है इस अध्ययन ने मुझे एक बार यह याद दिलाया है कि दुनिया की सबसे बेहतरीन फिल्म वो है जो मैं रोज देखता हूँ, जिंदगी! 

हिंदी सिनेमा के पचासवें दशक में नेहरू की विचार प्रणाली का प्रभाव साफ देखा जा सकता है वी। शांताराम ने अपनी फिल्म डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ के उद्घाटन के लिए नेहरू को उस वक्त बुलाया था जब वे देश के प्रधानमंत्री नहीं बने थे। महबूब खान की मदर इंडिया नेहरू के विकास मॉडल की अभिव्यक्ति का बेहतर उदाहरण है। नेहरू के मशहूर कथन ‘ बाँध आधुनिक भारत के मंदिर हैं’ को सार्थक करती है ये फिल्म।  राजकपूर के सिनेमा पर नेहरू के विचारों का असर भी साफ़ देखने को मिलता है नए-नए आजाद हुए मुल्क में सिनेमा का इस दिशा में जाना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। नेहरू की लिखी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया का उदाहरण सामने है किस प्रकार कल्पना में एक मुल्क आकार ग्रहण कर रहा था और इतिहास से उसके अस्तित्व के प्रमाण जुटाए जा रहे थे। सिनेमा भी इस परियोजना का वाहक बना। मदर इंडिया , मुगले आजम से गाइड तक इस राष्ट्र के सिनेमा के पर्दे पर मूर्तिमान होने के चिन्ह देखे जा सकते हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरूआती दौर में शहर बदलाव का केंद् और उम्मीद की किरण बनकर उभरता है। भारत के किसान का गाँव से शहर की ओर पलायन तो 1936 में प्रेमचंद के क्लासिक उपन्यास गोदान में गोबर के साथ ही हो जाता है। दो बीघा जमीन का शम्भू महतो और श्री चार सौ बीस का राजू इसकी ही अगली कड़ियाँ हैं। जिसका नायक ग्रामीण राजू है। 
तुम्हारा शहर क्या इसके बदले दे पाएगा मुझको,
मैं अपने गाँव में सावन बरसता छोड़ आया हूँ। जफ़र वस्फ़ी

हिंदी सिनेमा के पचास का दशक विरोधाभासों से भरा सुनहरा दशक है। जिसमें उम्मीद से भरी फ़िल्में भी हैं तो दूसरी और हिंदुस्तान के पहले आधुनिक शहर कलकत्ता में प्यासे को पानी के लिए पूरी रात तरसा देने वाले दृश्य भी है।
समाजवाद को लेकर अपने तमाम आग्रहों के बावजूद सुधीर मिश्रा गुरुदत्त को पचास के दौर का अकेला गैर नेहरूवादी फिल्मकार कहते हैं। फिल्म प्यासा के अंत में ‘ये इंसा के दुश्मन ये समाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है। गाता हुआ शायर जब इस समाज व्यवस्था को ठुकराकर नायिका के साथ किसी अनजान राह पर निकल जाता है तो वह इस समरूपीकृत पहचान के तले दबकर अपना व्यक्तित्व खोना अस्वीकार करता है। देव आनंद की फिल्म तेरे घर के सामने में नया बनता दिल्ली शहर आधुनिक विचारों वाले नायक-नायिका के लिए सम्भावनाओं का शहर बनकर उभरता है। सत्तर का दशक आते आते आकांक्षाओं के स्थान पर असंतोष घर करने लगता है। यह वह दौर होता है जब एंग्री यंग मैन में प्रतिशोध अपना सर उठाता है। एंग्री यंग मैन अमिताभ के सिनेमा में शहर की एक अलग तस्वीर दिखाई देती है। 

वासुदेवन उस दौर के सिनेमा पर अपनी टिप्पणी में लिखते हैं पचास के दशक में लोकप्रिय या कला दोनों किस्म के सिनेमा में श्रम या कामकाज को आमतौर पर निरूपित नहीं किया जा सकता था। मगर इस नए दौर ने गोदामों, रेलवे प्लेटफार्मों, खदानों और निर्माण स्थलों के यथार्थवादी चित्रण के जरिए श्रम की दुनिया को निरूपित किया जाने लगा।…. 
विकास के जिस नेहरूवियन स्वप्न से पचास के दशक की फ़िल्में अनुप्राणित हैं उनका त्रासद अंत हम अमिताभ के सिनेमा में देख सकते हैं। बेशक अमिताभ के बरक्स शशि कपूर का किरदार खड़ा कर वह आदर्श और नैतिकता की बात करता है। लेकिन शहर का विकासवादी स्वप्न किस तरह ढहा है उसे देखने के लिए हमें विजय के किरदार की दुनिया में प्रवेश करना ही होगा। रवि वासुदेवन मदर इंडिया और कुली की तुलना करते हुए कहते हैं कि मदर इंडिया का आख्यान राधा के इर्द गिर्द घूमता है जो अब गाँव की माता जी बन चुकी है और उसे गाँव के बाहर बनाये जा रहे बाँध के निर्माण की देखरेख का जिम्मा सौंपा गया है। प्रौधौगिकी के रास्ते में आने वाली सम्पन्नता के राष्ट्रवादी सपने में माँ और पृथ्वी के प्रकृति रूप एक दूसरे में गूँथ जाते हैं। नेहरू ने तो कहा ही था कि बाँध आधुनिक भारत के मंदिर हैं… इसके तकरीबन चौथाई सदी बाद कुली में खालिस निर्दयता और चौधराहट की चाह के तहत एक दरिंदा गाँव को डूबोने के लिए बाँध के दरवाजे खोल देता है इस दृश्य में प्रौधौगिकी विपुल सम्पन्नता का कृपालु वाहन नहीं बल्कि ध्वंस और तबाही का एक नृशंस साधन बनकर सामने आती है। यह कथानक नेहरू के विकासवादी स्वप्न की युगान्तरकारी प्रति अभिव्यक्ति है।
अस्सी के दशक का अंत आते आते देश की सूरत तेजी से बदलती है शहर की बदलती तस्वीर के संदर्भ में आलोचक मदन गोपाल सिंह तेज़ाब को और रजनी मजूमदार परिंदा को विशेषतौर पर रेखांकित करते हैं। तेज़ाब का उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह अनेक प्रतीकों के माध्यम से शहर में तेजी से उभर रही पहचान की लड़ाई को अपना केंद्र बनाती है। इस फिल्म के नायक और खलनायक की पहचान साम्प्रदायिक आधारों पर होने लगती है जो उस दौर में उभर रही कट्टरपंथी राजनीति का प्रभाव है। इसके ठीक बाद का दौर अलग अलग धाराओं में बह जाता है। एक और यश चोपड़ा, सूरज बड़जात्या और करण जौहर जैसे फिल्मकार है जिनकी फिल्मों में शहर केवल घरों के डिजायनर कमरों और हवेलियों तक सिमट जाता है। दूसरी और मिथुन चक्रवर्ती से होती हुई सिनेमा की एक धारा गोविंदा तक आती है जहाँ सत्तर के दशक में हिंदुस्तानी सिनेमा का हीरो कामकाजी वर्ग से आता था। 
उदय प्रकाश की कहानी दिल्ली की दीवार में शहर के हाशिये ओर स्थित समाज और सत्ता केन्द्रक शहर के बीच का भेद साफ़ है। उनकी एक छोटी सी कहानी विनायक का अकेलापन दिल्ली शहर के सत्तातंत्र की क्रूरता को कुछ यूँ सामने रखती है। “जो भी दुर्दिनों में घिरता है, दिल्ली उसे त्याग देती है विनायक दत्तात्रेय भी दुर्दिनों में थे। दिल्ली ने उन्हें त्याग दिया न उनके पास कोई आता था न कोई उनका हाल पूछता था। इसी प्रकार हिंदी सिनेमा में जब देखे तो राजकुमार द्वारा निर्मित और अमर कुमार निर्देशित फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की फिल्म है। 1957 ही वह साल है जब मदर इंडिया, नया दौर, दो आँखे बारह हाथ जैसी समाजवाद से सीधे प्रभावित फ़िल्में एक साथ सिनेमा के पर्दे पर देखी गईं।पचास का दशक उम्मीदों भरा जमाना कहा जाता है। नया नया आजाद हुआ मुल्क यहाँ भविष्य की ओर एक आशा भरी निगाह से देख रहा है। 
ये चमन हमारा अपना है, इस देश पे अपना राज है
मत कहो कि सर पे टोपी है, कहो सर पे हमारे ताज है
****** 
ये प्राण से प्यारी धरती , दुनिया की दुलारी धरती
ये अमन का दिया आँधियों में जला , सारी दुनिया को इसपे नाज है।
शंकर शैलेंद्र का लिखा यह गीत जैसे सीधा नेहरू की विचारधारा को सरल शब्दों में हमारे सामने रख देता है। शंकर प्रखर रूप से स्माज्वाफ के समर्थक रहे हैं  और वामपंथी थियेटर संगठन इप्टा से उनका नाता बहुत गहरा है। गीत की पहली ही पंक्ति मेवुस गौरव की बात है जो आजाद मुल्क़ का नागरिक होने के नाते हमने पाया है। यह गीत उस समाजवाद को स्थापित करने की बात करता है जिसके बाद मुल्क का कोई कोना अँधेरा ना रहे और यहाँ नेहरू का अंतरराष्ट्रीयवाद साफ़ उभर कर आता है। शैलेंद्र के ही राजकपूर के लिए लिखे एक और गीत में भी हम यह प्रवृत्ति देख सकते हैं। श्री चार सौ बीस का यह गीत भी सिर्फ एक किरदार का परिचय नहीं बल्कि पूरे मुल्क की कहानी बयां करता है।
छोटे से घर में गरीब का बेटा 
मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा 
रंज-ओ-गम बचपन के साथी 
आंसुओं में जली जीवन बाती।
इसी प्रकार अनेकानेक हिंदी फिल्मों में भारत के विविध स्वरूपों के तथा यथार्थ के दर्शन हमें मिलते हैं मनोज कुमार की अधिकाँश फ़िल्में भारत देश को एक प्रतिबिम्बित देती है और संपूर्ण भारत के हर एक वाक़यात से हमें रूबरू कराती है। तथा कलाओं की, संस्कृति की विशिष्ट झाँकियाँ प्रस्तुत करती है। कला की इसी भारतीय अवधारणा में कला के संदर्भ में सुप्रसिद्ध इतिहासविद्ध श्री भगवतशरण उपाध्याय का कहना है। ललित आंकलन कला है। कालिदास ने ललिते क्लाविधे का जो रघुवंश में उल्लेख किया गया है। वह इसी प्रसंग में है। काव्य और कला के वर्गीकरण के संदर्भ में भारतीय दृष्टि सर्वथा भिन्न रही है। जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि काव्य मीमांसा से पता चलता है कि भारत के दो प्राचीन महानगरों में दो तरह की परीक्षाएँ अलग-अलग थीं काव्यकार की परीक्षा उज्जयिनी में और शास्त्रकार की परीक्षा पाटलिपुत्र में होती थीं। इस तरह भारतीय ज्ञान दो भागों में विभक्त था। काव्य की गणना विधा में थी और कलाओं का वर्गीकरण उपविधा में था। कला से जो अर्थ पाश्चात्य विचारों में लिया जाता है, वैसा भारतीय दृष्टिकोण में नहीं। पर्दे पर कुछ चलती-फिरती तस्वीरें थीं। दो घण्टे में हम बनवास से लौट आये। अथवा ये जिंदगी भी सर्कस की भांति तीन घण्टे का शो है भला राजकपूर के सर्कस के किरदार तथा उस फिल्म एवं असली जिंदगी की समानता को कौन भुला सकेगा। ये दो घण्टे बहुत कीमती हैं क्योंकि यही शहरी और बंबई जनता के लिए आनन्द और दैनिक जीवन की गुत्थियों से मुक्त होने के दो घण्टे हैं। इन दो घण्टों के लिए लगभग दो सौ, सवा दो सौ लोग रोज अपने घरों से चलकर आते हैं। पैसे खर्च करते हीरो के संघर्ष में सम्मिलित होते है। लड़ते हैं। मरते हैं। प्रसन्न होते हैं। दुःखी होते हैं। हारते हैं और जीतते हैं।
हमारे अधिकाँश फिल्मकार मानते हैं कि सिनेमा का मूल उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना है इसलिए साहित्यिक कृतियों के जरिये अथवा उन को आधार बनाकर दर्शकों की अपेक्षाओं को पूरा करना कठिन है 21वीं सदी के सिनेमा में सेक्स, किस सीन आदि आमबात है और इन सब फूहड़ता के बीच आज भी कई साहित्यिक फ़िल्में बनती तो हैं परंतु उतनी अधिक कमाई नहीं कर पाती और ना ही ख्यातनाम हो पाती हैं। इन सबके बावजूद भी फिल्मकारों ने समय समय पर नामी लेखकों की साहित्यिक कृत्तियों व रचनाओं को आधार बनाकर सफल फिल्मों का निर्माण किया है। सन 1964 में नेहरू के देहांत के बाद जल्द ही लोकतांत्रिक आचरण खोखले ढर्रे तक सीमित रह गया और केवल दस साल बाद उनकी बेटी ने ही देश को एकदम अलग तरह की राजनीति में ढ़केल दिया और इंदिरा के राज में बदला सत्ता का यही चेहरा फ़िल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ का विषय भी बना। नेहरू के दौर का आदर्शवाद और सपने उनके अपने जीवन के अंतिम समय में ही बिखरने लगे थे। अगर हम 21वीं सदी की एक फिल्म रंग दे बसंती से उस दौर की तुलना करें तो रंग दे बसंती एक अनजाने शहर में खो जाने का अहसास देती है। यह शहर की संरचना को एक दहशतनाक दुनिया में तब्दील कर देती है। रंग दे बसंती के भगतसिंह और आज के युवाओं के संघर्ष के बीच एक समान रिश्ता कायम कर उस युग के माध्यम से आज में हस्तक्षेप करना चाहती है। और अपने सबसे प्रतीक शॉट के लिए दिल्ली के दिल इंडिया गेट को चुनती है। रात की जलाई मोमबत्तियां बुझने लगती हैं और इन बुझती मोमबत्तियों की लौ के बीच होता निर्मम लाठी चार्ज सत्ता की ओर से आखिरी उम्मीद की लौ भी बुझ जाने का संकेत दे देती है। तथा पर्दे के पीछे चलने वाला प्रसून जोशी का लिखा गीत भी इस छवि को आगे बढ़ाता है।
कुछ कर गुजरने को खून चला खून चला
आँखों के शीशे में उतरने को खून चला।
इंडिया गेट पर खून का बहना इस शहर की सरंचना में भय का और आक्रोश का गहरा बिम्ब जोड़ देता है। चक दे इंडिया उन्हीं जयदीप साहनी की लिखी फ़िल्म है। जिन्होंने खोसला का घोसला में दिल्ली की एक बिल्कुल अलहदा तस्वीर पेश की थी। 
भारत में समकालीन इतिहास को लेकर सिनेमा निर्माण की परंपरा नहीं रही है। जीवित किरदार , जीवंत घटनाएँ सुरक्षित सिनेमा निर्माण के सही नहीं मानी जाती। 
जिस तरह मुक्तिबोध कहते हैं। 
“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे,
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब”
शायद यही अभिव्यक्ति के खतरे हैं जिनसे अमित सेनगुप्ता जूझते हैं  जब वे तहलका में मिडिल क्लास को गुस्सा क्यों आता है शीर्षक से संपादकीय लिखते हैं। साहित्य पर आधारित हिंदी सिनेमा की जब हम बात करते हैं तो प्रमुख फिल्मों का नाम स्वतः ही स्मरण हो जाता है। जिनमें से प्रमुख है
देवदास जो की मूल रूप से बंग्ला में लिखित शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास को आधार बनाकर हिंदी में प्रमथेश बरुआ (1936), विमल राय (1955) और इसके बाद संजय लीला भंसाली (2002) में इसी नाम से फिल्म बनाते हैं।
परिणीता यह फिल्म भी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1914 में लिखे गए चर्चित बांग्ला उपन्यास पर इसी नाम से 1942 में पशुपति चटर्जी 1953 में तथा विमल राय 1969 और अजॉयकार 2005 में फिल्म का निर्माण करते हैं। जिसका निर्देशन प्रदीप सरकार द्वारा किया जाता है।
धर्मपुत्र (1961) आचार्य चतुरसेन के उपन्यास को आधार बनाकर यश चोपड़ा जी ने इसी नाम से फ़िल्म का निर्माण किया
साहब बीबी और गुलाम (1962) बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र के उपन्यास पर इसी नाम से गुरुदत्त ने फिल्म बनायी। जिसको बराबर अल्वी ने निर्देशित किया 
गोदान (1963) उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अमर कृत्ति पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन त्रिलोक जेटली ने किया। 
बन्दनी (1963) चारुचंद्र चक्रवर्ती ‘जरासंध’ के बांग्ला उपन्यास ‘तामसी’ पर केंद्रित फिल्म का निर्माण बिमलराय ने किया। 
काबुलीवाला (1965) रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित कहानी पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण बिमल राय ने तथा निर्देशन हेमेन गुप्ता द्वारा किया गया। 
गाइड (1965) मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे गए आर. के. नारायण के उपन्यास ‘दि गाइड’ पर ‘देव आनन्द’ ने हिंदी में फिल्म का निर्माण किया। जिसे विजय आनन्द ने निर्देशित किया।
गबन (1966) मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण ऋषिकेश मुखर्जी ने किया।
तीसरी कसम (1966) उपन्यासकार कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणू की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ को आधार बनाकर बासु भट्टाचार्य ने फ़िल्म बनायी। 
सरस्वतीचन्द्र (1968) गोवर्धन माधवराम त्रिपाठी के गुजराती उपन्यास पर उसी नाम से फिल्म का निर्माण गोविन्द सरैया ने किया।
भुवन सोम (1969) बलाई चन्द्रमुखोपाध्याय द्वारा रचित बाँग्ला कहानी पर आधारित फिल्म का निर्माण व निर्देशन मृणालसेन ने किया।
सारा आकाश (1969) राजेंद्र यादव के उपन्यास प्रेत बोलते हैं को आधार बनाकर निर्देशक बासु चटर्जी ने फिल्म बनाई।
शतरंज के खिलाड़ी (1977) प्रेमचंद की कहानी पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से फिल्म बनाई।
ब्लैक फ्राइडे (2004) एस. हुसैन जैदी के लिखे उपन्यास ब्लैक फ्राइड- द ट्रू स्टोरी ऑफ़ द बॉम्बे ब्लास्ट्स पर केंद्रित फिल्म का निर्देशन अनुराग कश्यप ने किया।
सिनेमा के विविध रूप इसी प्रकार अनेकों बार साहित्य से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध तथा सामंजस्य बनाकर चलता रहा है। सिनेमा साहित्य और अन्य दूसरी कलाओं से भले ही बाद में आया लेकिन उसके बावजूद भी यह अन्य अपनी सापेक्ष कलाओं से कहीं आगे दिखाई देती है कारण सबसे बड़ा मनोरजंन के साथ साथ ज्ञान वृद्धि एवं संचार के दोनों दृश्य एवं श्रव्य माध्यम का एक साथ मिल पाना है। हालांकि अन्य दूसरी कलाओं ने भी सिनेमा को  पर्दे पर सफल रूप में उतरने में सहायता की है। और उसे सबसे अधिक प्रभावशाली बनाने में अहम् भूमिका निभाई है। साहित्य का सिनेमा के प्रादुर्भाव से ही विशेष स्थान रहा है और सफल साहित्य ने फिल्मों की सफलता में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य सिनेमा में विविधता और सुंदरता लाता है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है। कि साहित्य आधारित फ़िल्में उस साहित्य से जिस पर वह आधारित है से अधिक प्रभावशाली नहीं बन पाती है। इसलिए सिनेमा कभी साहित्य की बारीकियों तक नहीं पहुँच सकता। बल्कि शब्दों में ही वह शक्ति होती है जो पाठक की भावनाओं, विचारों और कल्पनाओं में उफान ला सकते हैं। 
बहरहाल सिनेमा और साहित्य का सम्बन्ध अटूट रहा है। और लगभग पूरी दुनिया में सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्मों का एक बड़ा हिस्सा साहित्य अथवा साहित्य का आधार ही रहा है। वर्तमान में भारतीय सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा अपनी एक गहरी छाप छोड़ रहा है। भारतीय सिनेमा 1एक शताब्दी वर्ष की यात्रा पूर्ण कर चुका है यह एक दरअसल चमत्कार ही था जब हिलती,डुलती, दौड़ती, कूदती तस्वीरें पहली बार पर्दे पर आई। भले ही सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फ़िल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका अआधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहेब फाल्के ने बनाई जो भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक पर आधारित थी। 
हिंदी सिनेमा को अप्रतिम ऊंचाइयों पर ले जाने वाली यों तो अनेक स्त्रियां रही हैं। जिन्होंने समय-समय आप अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया है। तथा सिनेमा में महिलाएँ कुछनहीं कर सकती और यह उनके लिए बना ही नहीं है अथवा सभ्रांत परिवारों से आई महिलाओं ने इस मिथक एवं पूर्वाग्रह को तोड़ा। आज के दौर में सिनेमा में महिलाओं ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है एक नया मुकाम स्थापित किया है जिसके कारण अब 21वीं सदी के दौर का सिनेमा धीरे धीरे पूर्ण रूप से महिलाओं को ही केंद्र में रख कर उसे सिनेमाई पर्दे पर उतारा जा रहा है। महिलाओं पर केंद्रित कई फिल्में भी बनने लगी है। जिनमें पिछले कुछ सालों में बनी प्रमुख फ़िल्में हैं।
परिणीता
हीरोइन
रंगरसिया
क्वीन
डर्टी पिक्चर
एन एच 10
इंग्लिश विंग्लिश
पिंजर
मर्दानी
नो वन किल्ड जेसिका
सुपर नानी
अंग्रेजी फ़िल्म द गर्ल इन येलो बूट्स
मैरी कॉम
प्रोवोक्ड
आंधी
अमर प्रेम
आविष्कार
चमेली
बॉबी जासूस
तथा हाल ही में आई पीकू समानांतर सिनेमा में सबसे अच्छी फ़िल्म कही जा सकती है।
21 वीं सदी की महिला कलाकार जिन्होंने अपने अभिनय से एक अलग मुकाम हासिल किया तथा आलोचकों को भी भरपूर जवाब दिया। जब इन विश्व सुंदरियों जैसे खिताबों से विभूषित अभिनेत्रियों को सिनेमा में देखते हैं तो हर आयु वर्ग के व्यक्ति इनके अभिनय तथा रूप सौंदर्य को देख अचंभित हुए नहीं रह सकते। अंतरराष्ट्रीय स्तर के जापानी फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरुसोवा ने 1980 के दशक में कहा था कि भारतीय सिनेमा, खासकर हिंदी सिनेमा कभी मर नहीं सकता। आज कुरुसोवा का यह वक्तव्य सौ फीसदी सही साबित हो रहा है।
फिल्मों में सभ्रांत वर्ग की महिलाओं के लिए राह बनाने वाली दुर्गा खोटे ने फिल्मों के दोनों रूपों (मूक एवं बोलती) में अभिनय किया। अपनी लंबी अभिनय यात्रा में मुगले आजम, बावर्ची आदि फिल्मों में कई यादगार भूमिकाएँ निभाई तथा फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के से सम्मानित की गईं। दुर्गा ऐसे समय में फिल्मों में आने के लिए विवश हुई जब इस क्षेत्र को प्रतिष्ठित परिवार के लोग अच्छी नजरों से नहीं देख रहे थे और उनके परिवार की लड़कियों को फिल्मों में काम करने की मनाही थी। 
भारतीय सिनेमा के रजत पट की फकी महिला स्टार के नाम से ख्यात देविका रानी के अपूर्व योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय सिनेमा का विकास उस दौर में इन्होंने किया जब महिलाएँ घर की चारदीवारी के भीतर भी घूँघट में मुँह छुपाए रहती थी। हिंदी सिनेमा की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रेगन लेडी जैसे विश्लेषणों से अलंकृत देविका को उनकी खूबसूरती, शालीनता धाराप्रवाह अंग्रेजी और अभिनय कौशल के लिए विश्व स्तर पर जितनी लोकप्रियता और सराहना मिली उतनी कम ही अभिनेत्रियों को नसीब हो पाती है। ब्रिटेन के अखबार उस समय उनकी तारीफों से अटे पड़े रहते थे। लन्दन के एक समाचार पत्र द स्टार ने उनकी तारीफ में लिखा था। “आप सुश्री देविका रानी की अंग्रेजी सुनिए आपने कभी इतनी सुरीली आवाज नहीं सुनी होगी और न ही इतना खूबसूरत चेहरा देखा होगा। उनकी अद्वितीय खूबसूरती पूरे लंदन को चकाचौंध कर देगी। पदम् श्री सम्मानित एवं सबसे पहले दादा साहेब फाल्के पुरूस्कार प्राप्त यह कलाकार लंबे समय तक याद की जायेगी। 
अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमूर्ति और अपनी मनमोहक मुस्कान और दैवीय सुंदरता की बदौलत पूर्व की वीनस कहलाने वाली मधुबाला का मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी था। बेबी मुमताज के रूप सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो अभिनेत्री देविका रानी ने उन्हें मधुबाला नाम दिया महज 36 वर्ष की आयु तक लगभग 70 फिल्मों में काम करने वाली इस अभिनेत्री की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं जिन्हें देख कभी भी बोरियत महसूस नहीं होती। जैसे की अमर प्रेम, महल, चलती का नाम गाडी, हावड़ा ब्रिज, इंसान जाग उठा, हाफ टिकट और सबसे ज्यादा ख्यातिप्राप्त मुगल-ए-आजम।
ट्रेजेडी क्वीन के नाम मशहूर मीना कुमारी को कौन भुला सकता है। इनका जादू आज भी लोगों के सर चढ़कर बोलता है।साहब बीबी और गुलाम तथा पाकीज़ा के गीत “न जाओ सैयां छुड़ा के बय्यां कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी अथवा यूँ ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते। इन दोनों गीतों से उनके दो रूप आँखों के सामने आ जाते हैं। इनकी यादगार फिल्मों में आजाद, दिल अपना और प्रीत पराई, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और काजल जैसी बेहतरीन फ़िल्में हैं। पाकीजा अंतिम फिल्मों में से एक जिसकी अद्भुद सफलता के पीछे इनकी बेवक्त मौत की वजह थी। पहले तो इस फिल्म को सिरे से नकार दिया गया लेकिन मौत के बाद जिस तरह यह फिल्म सराही गई उसकी मिसाल कहीं अन्यथा मिलना असम्भव है। मीना कुमारी एक कवयित्री भी थी इए बहुत कम लोग जानते हैं। तथा अपने अभिनय कौशल से कई बार फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरूस्कार भी प्राप्त किया।
फ़िल्म उद्योग के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति एवं एंग्री यंग मैन के नाम से मशहूर बिग बॉस अमिताभ बच्चन की धर्मपत्नी ज्याआ भादुड़ी हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक है। अमिताभ बच्चन के साथ अभिमान, शोले, जंजीर, मिली और सिलसिला जैसी फिल्मों में एक साथ काम करने वाली इस कलाकार को सिनेमा में योगदान के लिए पदम् श्री, यश भारती आदि जैसे सम्मानों से भी समानित किया जा चुका है। फिल्म कोरा कागज के लिए फिल्म फेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड, फिल्म फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के अलावा समाजवादी पार्टी की सदस्य राज्यसभा की सांसद भी ये रह चुकी है। 
हरे रामा हरे कृष्णा में हिप्पी की भूमिका और कुर्बानी में नाइट क्लब डांसर से लेकर सत्यम शिवम सुंदरम में सेक्सी देहाती बाला की भूमिका निभाने वाली जीनत अमान को कैसे भुलाया जा सकता है। भारतीय सिनेमा में पश्चिमी  रूप, रंग एवं शैली की अभिनेत्री की भूमिका की शुरुआत करने का गौरव तथा फेमिना जैसी मैग्जीन के लिए पत्रकारिता करने का गौरव भी इन्हें हासिल है। 70 के दशक में मिस इंडिया प्रतियोगिता में तीसरा स्थान, 71 में मिस एशिया बनने वाली जीनत फिल्मों में आने से पहले रैंप पर सनसनी मचाया करती थी। 
कांस फिल्मोंत्सव की जान एवं उसकी ज्यूरी की सदस्य एवं अंतरराष्ट्रीय अम्बेस्डर तथा। ओपरा द्वारा विश्व की सबसे सुंदर महिला खिताब जीतने वाली तथा मैडम तुसाद संग्रहालय में मोम की प्रतिमूर्ति स्थापित होने का गौरव प्राप्त अप्रतिम सौंदर्य की मल्लिका ऐश्वर्य राय का कहना है कि वह हमेशा से आर्किटेक्ट बनना चाहती थी और स्कूल कॉलेज में भी हमेशा अव्वल आने वाली यह आज मिस वर्ल्ड (विश्व सुंदरी) भी है। 1994 में फेमिना मिस इंडिया प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर फर्स्ट रनरअप के साथ यह खिताब अपने नाम किया। मिस इंडिया खिताब के बाद मिस वर्ल्ड दक्षिण अफ्रीका में आयोजित प्रतियोगिता में बनी। टाइम मैगजीन के कवर पेज पर जगह बनाने के अलावा 100 प्रभावशाली व्यक्तित्व सूचि में भी स्थान प्राप्त किया। इन सबके साथ अन्य कई खिताब तथा पुरूस्कार प्राप्त कर सिनेमा में एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाली महिला हैं।
कपूर खानदान जिसके बिना सिनेमा बिल्कुल अधूरा सा प्रतीत होता है। जैसे राजनीति में गाँधी परिवार का योगदान है वैसे ही सिनेमा में कपूर खानदान का नाम तथा योगदान है। कपूर खानदान की चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली करिश्मा कपूर ने हिंदी फिल्मों में न केवल एक सफल अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान दर्ज कराई बल्कि साथ ही साथ समय-समय पर आलोचकों की प्रशंसा भी बटोरी। करिश्मा कपूर खानदान की पहली बेटी है जिसने समाजिक दायरे के चौखट से बाहर कदम रख सिनेमा को अपना भविष्य बनाया था एक सफल अभिनेत्री के रूप में मुकाम हासिल किया।

करीना कपूर अभिनेता और फ़िल्म निर्माता राजकपूर की पोती और पृथ्वीराज कपूर की परपोती है तथा प्यार से पूरे भारत में एवं सिनेमा जगत् में बेबो के नाम से ख्याति प्राप्त करीना आज सबके दिलों की धड़कन है। फ़िल्म फेयर स्पेशल परफॉर्मेंस अवार्ड (फिल्म फेयर विशिष्ट प्रदर्शन पुरूस्कार) चमेली फिल्म के लिए तथा इसके अलावा भी कई अन्य फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के लिए कई बार सराही तथा सम्मानित की गई है।
सफलता का पर्याय कैटरीना कैफ़ युवाओं की सबसे पसंदीदा अभिनेत्री ने छोटे से सिनेमा सफर में खुद को शीर्ष की अभिनेत्रियों में खुद को स्थापित किया है। हिंदी फिल्मों में कदम रखने के साथ ही उनकी सफलता पर जब प्रश्न चिन्ह लागाये गये कि वह हिंदी शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाती है। जिस कारण ऐसे कयास लगाये जा रहे थे। परंतु अपने आकर्षण से इन आशंकाओं को कोरा साबित कर दिया  उन्हें दर्शकों द्वारा स्वीकारा एवं सराहा भी गया तथा आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए इन्होंने हिंदी भी सीखी। कहा जाता है किसी सफल पुरुष के पीछे महिला का हाथ होता है किंतु कैटरीना कैफ़ की भांति कई ऐसे भी होते हैं जिनकी सफलता के पीछे पुरुष का हाथ होता है। कैटरीना को स्थापित करने में सलमान खान का रिश्ता उनकी जिंदगी में एक अहम् मोड़ तथा योगदान कहा जा सकता है। 
हिन्दू मुस्लिम माता पिता की संतान नरगिस फातिमा रशीद उर्फ़ नरगिस हिंदी सिनेमा की ‘प्रथम महिला’ कही जाने वाली और बेजोड़ अभिनेत्री के रूप में याद की जाने वाली नरगिस की जगह भरने की कई अभिनेत्रियों ने नाक़ाम कोशिशें की। नरगिस को  50 के दशक के भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग से जोड़कर देखा जाता है। फिल्म मदर इंडिया के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरूस्कार पाने वाली नरगिस के लिए एक पत्रकार उस समय लिखते हैं - मदर इंडिया नरगिस के लिए वही है जो मार्लन ब्रांडों के लिए ‘गॉडफादर’। आखिरी फिल्म रात और दिन के लिए राष्ट्रीय पुरूस्कार, पदम् श्री और राज्य सभा के लिए मनोनीत होने वाली पहली अभिनेत्री हैं नरगिस।प्रियंका चोपड़ा की गिनती आज अपने फिल्मी सफर के शुरुआत में ही फिल्म ऐतराज में नकारात्मक भूमिका निभाकर फ़िल्मी पंडितों को चौंक़ाकर टॉप हीरोइनों में की जाती है। इस  विश्व सुंदरी का सिनेमाई सफर आज उफान पर है और भारतीय सिनेमा से इतर विश्व के सिनेमा जिसे हम हॉलीवुड के नाम से जानते तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब हुई है। 
भारतीय सिनेमा के समांतर सिनेमा के दौर में हिंदी साहित्य को सबसे ज्यादा महत्व और निष्ठा भरी समझ मिली। शुरूआती सिनेमा का दौर पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण का दौर रहा। जिनमें धार्मिक ग्रन्थों की कथाओं को अआधार बनाया गया। इनका उद्द्देश्य धार्मिक और आर्थिक के साथ सामाजिक भी था। अस्सी वें दशक तक सिनेमा ने हिंदी उर्दू में कोई फर्क नहीं माना। कुछ समय बाद व्यावसायिक फिल्मों का भी दौर आरम्भ हुआ जिसमें एंग्री यंग मैन को जन्म दिया। यथार्थ से कटी इस दौर की फिल्मों से नवें दशक में आकर मुक्ति मिली साहित्यिक कृत्ति एवं सिनेमा के अंत संबंधों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर का मानना है। 
फ़िल्म छवि है, फिल्म शब्द है, फिल्म गति है, फिल्म नाटक है, फिल्म कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म में मुश्किल से एक मिनट का टुकड़ा भी इन बातों का साक्ष्य दिखा सकता है। सत्यजीत रे के उक्त कथन से आचार्य भरत के नाट्य शास्त्र का श्लोक बरबस याद आ जाता है। 
न तज्ज्ञानं तच्छिल्प न सा विद्या न सा कला।
न सौ योगौ, न तत्कर्म, नाट्येsस्मिन चन्न दृश्यते।।
अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, ऐसा कोई शिल्प नहीं है, ऐसी कोई विधा नहीं है, ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसा कोई योग नहीं है,ऐसा कोई कर्म नहीं है, जिसे नाटक में न दिखाया जा सके। 

संदर्भ ग्रन्थ सूचि-

  1. शहर और सिनेमा : वाया दिल्ली ; मिहिर पंड्या; वाणी प्रकाशन; प्रथम संस्करण 2011
  2. आवारा हूँ – ब्लॉग
  3. सिनेमा और संस्कृति; डॉ. राहीमासूम रजा; संपादन एवं संकलन प्रो. कुंवरपाल सिंह; वाणी प्रकाशन; आवृति 2011
  4. भारतीय सिने सिद्धान्त; डॉ अनुपम ओझा ; पहली आवृति; 2009 राधा कृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली 
  5. सिनेमा: फिल्मों में साहित्य गूंथने की कला का जानकार रितुपर्णो घोष; निकिता जैन अपनी माटी पत्रिका अक्टूबर-दिसम्बर 2014; अंक 16 
  6. हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक; सत्यजीत रे
  7. हिंदी समय वेबसाइट- महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा; सिनेमा और हिंदी साहित्य इकबाल रिजवी
  8. सिनेमा, साहित्य और हिंदी; दैनिक जागरण; 22 जुलाई 2016
  9. जानकीपुल; साहित्य और सिनेमा के रिशते ; प्रतीक्षा रंजन; 3 मार्च 2013
  10. साहित्य और सिनेमा:भूमिकाओं का उलटफेर; दैनिक भास्कर 17 मई 2016
  11. साहित्य और सिनेमा; दैनिक जागरण पत्रिका; डॉ पुनीत बिसारिया 16 जून 2015 
  12. विकिपीडिया डॉट कॉम
Tejas Poonia (तेजस पूनिया)

1 comment: