Monday, September 9, 2019

राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास और भारतेन्दु हरिश्चंद्र


    हिन्दी का आरम्भ तभी से माना जा सकता है, जब से 1000 ईस्वी के लगभग भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ। शुद्ध खड़ी बोली के पुराने अवशेष शरफुद्दीन, अमीर खुसरों और बंदा नवाज़ गैलूदराज़ की रचनाओं में मिलते हैं। आधुनिक खड़ी बोली अर्थात् हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास क्रम सन् 1799 में फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना से होता है। इसके आचार्य जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का गहनतम् अध्ययन किया। इन्होंने अपने चार सहयोगियों इंशा अल्लाह खाँ, लल्लूलाल, सदलमिश्र और सदासुखलाल के साथ मिलकर अनेक पुस्तकों के अनुवाद व मौलिक रचनाएं प्रकाशित करायी गयी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि फोर्ट विलियम कॉलेज के इन चारों लेखकों ने खड़ी बोली यानि हिन्दी के साहित्यिक क्षेत्र का विस्तार किया। परन्तु भाषा का कोई व्यावहारिक व मानक रूप उपस्थित नहीं कर सके। इसके बाद 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजा लक्ष्मण सिंह ने स्वतंत्र शैली निर्माण किया। राजा लक्ष्मण सिंह का उद्देश्य था, विशुद्ध हिन्दी, जिसमें उर्दूपन बिल्कुल भी न हो। अपने शकुन्तला व मेघदूत नाटकों के हिन्दी अनुवाद में उन्होंने ऐसी ही शैली का प्रयोग किया। जिसे बाद में स्वामी दयानंद सरस्वती, पं0 भीमसेन शर्मा, अम्बिका दत्त व्यास आदि अनेक प्रमुख साहित्यकारों ने परिष्कृत तथा परिनिष्ठित किया। उस समय खड़ी बोली के बढ़ते प्रयोग को देखकर ईसाई मिशनरियों ने भी अपना धर्मप्रचार का सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाय। उन्होंने धर्म-समाज सुधार संबंधी कई छोटी-बड़ी पुस्तकें छपवाकर लोगों में वितरित की। सन् 1826 में में ‘धर्म पुस्तक‘ नाम से ओल्ड टेस्टामेंट का खड़ी बोली में अनुवाद प्रकाशित किया। अनुवाद होने के कारण मिशनरियों ने अंग्रेजी पुस्तकों में प्राप्त विराम-चिह्नों को अपनाकर नया प्रयोग किया जो समय के साथ-साथ बढ़ता गया।
    खड़ी बोली को उसके वर्तमान व्यवहारिक रूप ‘हिन्दी‘ में लाने का अद्वितीय कार्य भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा ‘हरिश्चन्द्र मैंगजीन‘ के प्रकाशन के साथ किया।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

सन 1877 ई. में भारतेन्दु ने ‘हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान’ शीर्षक से ये लम्बी कविता लिखी थी, वास्तव में यह कविता न होकर एक काव्यात्मक व्याख्यान था, जिसे जून 1977 में उन्होंने हिन्दीवर्द्धिनी सभा में पढ़ा था। इस कविता रूपी व्याख्यान के माध्यम से उन्होंने हिन्दी के प्रचार और प्रसार की आवष्यकता पर बल देते हुए हिन्दी को हेय दृष्टि से देखने वालों की अच्छी खबर ली थी, जो आज भी तथाकथित अंग्रेज़दानों के चरित्र पर सटीक बैठती है। हिन्दी साहित्य को भारतेन्दु की देन भाषा व साहित्य दोनों की क्षेत्रों में समान है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, जो उर्दू से भिन्न है और हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है। यद्यपि इन्हांेने विभिन्न भाषाओं में साहित्य लिखा, किन्तु ब्रजभाष पर इनका असाधारण अधिकार था। भारतेन्दु के समायाकाल में देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और अंग्रेजी शासन में अंग्रेजी भाषा अपने चरमात्कर्ष पर थी। राजकाज के सभी कार्य अंग्रेजी में किये जाते थे। भारतीयों में विदेशी भाषा और सभ्यता के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था। उस समय अंग्रेजी पढ़ना और पढ़ाना लोग गर्व की बात समझते थें। हिन्दी के प्र्रति मोह समाप्त होने लगा था, क्योंकि अंग्रेजी की नीति से हमारे साहित्य पर बुरा असर पड़ रहा था। हम मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की गुलामी जीने को विवश थें। भारतीय संस्कृति नष्ट होने की कगार पर खड़ी थी। ऐसे विकट काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का अर्विभाव हुआ। सबसे पहले उन्होंने समाज और देश की दशा पर गंभीर विचार करते हुए अपनी कलम के जरिए अंग्रेजी राज का पर्दाफ़ाश किया। अपनी 35 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लगभग 37-38 कविता, नाटक, निबंध, व्याख्यान आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया। जिनमें मौलिक होने के साथ अनुदित कृतियां भी थीं। जिनमें प्रमुख रचनाएं भक्तसर्वस्व, प्रेममालिका, प्रेममाधुरी, प्रेम-प्रलाप, प्रेम फुलवारी, फुलों का गुच्छा, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, भारत दुर्दशा, अंधेरी नगरी, सत्य हरिश्चंद्र, मुद्रा राक्षस आदि हैं। उनका उपन्यास ‘पूर्ण प्रकाष‘ और ‘चन्द्रप्रभा‘ मराठी उपन्यासों का खड़ी बोली में अनुवाद है। वर्तमान राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास में उनका वास्तविक योगदान हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और बालाबोधनी पत्रिकाओं में प्रकाशित निबंधों में स्पष्टतः मिलता है। इतनी कम आयु में भारतेंदु ने मात्रा व गुणवत्ता की दृष्टि से इतना साहित्य रचा कि उनका सम्पूर्ण रचनाकर्म भावी पीढ़ियों का पथप्रदर्शक बन गया। भारतेन्दु ने राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की अरबी-फारसी  प्रधान हिन्दी और राजा लक्ष्मण प्रसाद की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के बीच का मार्ग निकाला। यानि भाषा में न ज्यादा पंडितपन हो और न ही मौलवी शैली की कठिनता। उन्होंने इन भाषाओं के उन्हीं शब्दों को ग्रहण किया जिनसे भाषा का हिन्दीपन बना रहे। उन्होंने खड़ी बोली यानि हिन्दी को कठिन प्रयोगों से हमेशा मुक्त रखा। इनसे पूर्व की जो हिन्दी है उसमें ऐसा माधुर्य प्रायः देखने को नहीं मिलता है।
हिन्दी के प्रमुख प्रचारक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही हैं। उस समय भाषागत् इतनी विविधताओं के होते हुए भी एक समन्वित मार्ग निश्चित करना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का ही कार्य था। सामान्य रूप से उनकी भाषा अपने उद्देश्य के अनुकूल रही और परिमार्जित होगर आधुनिकता की ओर बढ़ती रही। जो आज हमारे समक्ष हिन्दी के रूप उपस्थित है जिसे आज हम गर्व से राष्ट्रभाषा कहते हैं। विख्यात आलोचक व साहित्यकार डॉ. रामचन्द्र शुक्ल भारतेन्दु के विषय में लिखते हैं- ‘‘जब भारतेन्दु अपनी मंजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तो हिन्दी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्राकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रहा गया। भाषा का स्वरूप स्थिर हो गया।‘‘ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र निःसन्देह खड़ी बोली की उन्नति के लिए बहुत सक्रिय रहें और उन्होंने अपने रचनाक्रम द्वारा साहित्य को समृद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया। उनका पूरा प्रयास रहता था कि नवीन साहित्यिक सृजन करके हिन्दी भाषा का प्रचार और प्रसार किया जाए। यह भी सच है कि वे अपने मन्तव्य को पूरी तरह धरातल पर नहीं उतार सकें। इसका कारण था उनका अल्पायु में ही दिवंगत हो जाना। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों से प्रभावित होकर काषी की जनता तथा साहित्यिक लोगों ने उन्हें ‘भारतेन्दु‘ की संज्ञा से विभूषित किया।
14 सितंबर 1949 को हिंदी को संवैधानिक रूप से राजभाषा का दर्जा दिया गया। भले ही राजनैतिक या संवैधानिक कारणों से लोग इसे राजभाषा कहें, लेकिन हिन्दी भारतीयों के दिलों में रहने वाली व्यावहारिक धरातल पर राष्ट्रभाषा ही है। आज पूरे देश में बोली व समझे जाने वाली एकमात्र भाषा हिन्दी ही है। हिन्दी की इसी सर्वव्यापकता के आधार पर वह राष्ट्रभाषा है। अपनी राष्ट्रभाषा के विकास व प्रसार के लिए आवश्यक है कि हम अपने अन्य राज्यों-प्रांतो की भाषाएं सीखें, उनके साहित्य को पढ़े। भारत की अन्य भाषाओं की शब्दावलियों को आत्मसात् करें। हांलाकि संविधान के अनुच्छेद 351 में राजभाषा हिन्दी के विकास, प्रसार-प्रचार के विशेष प्रावधान किये गये हैं। परन्तु हिन्दी के विकास के लिए हमें व्यक्तिगत स्तर से भी प्रयास करने होंगे। हम सोचते हैं कि यदि बच्चों को इंग्लिश मीडियम में नहीं पढ़ाएंगे तो उनका भविष्य खराब हो जाएगा। बल्कि आजकल अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना माता-पिता के लिए प्रतिष्ठा का सवाल हो गया है। बच्चे का पहला विद्यालय उसका घर और पहले शिक्षक मां-बाप ही होते हैं। बचपन से ही हम बच्चों को अंग्रेजी की ओर अग्रसर करने पर तुले रहते हैं। अबोध बच्चों को सामान्य बातों-चीजों से संबंधित ज्ञान हम अंग्रेजी शब्दों में कराते हैं। जबकि हमारा हिन्दी शब्दकोश भरा-पूरा है। यहंा तक कि हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें विश्व की अनेक भाषाओं के शब्दों को अपने में समाहित कर लिया है। आज अंग्रेजी न जानना पिछड़ेपन व गवारूपन समझा जाता है। यह भी विरोधाभास ही है कि एक ओर तो हम हिन्दी को अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा मानते हैं और दूसरी ओर अंग्रेजी को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं। शहर हो या गांव आप जगह-जगह यह इश्तहार चिपक हुए मिल जाएंगे कि ‘नब्बे दिनों में अंग्रेजी बोलना सीखे‘। यह बात ठीक है कि अंग्रेजी आज अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है और उस पर अधिकार रखना हमारे हित में है। अंग्रेजी भी हिन्दी के जैसे एक भाषा ही है हमें उसका सम्मान करना चाहिए, परन्तु जिस तरह से अंग्रेजी ज्यादा प्रयोग में लाने से हमारी सभ्यता-संस्कृति का ह्यस हो रहा है, वह किसी से नहीं छिपा है। आज अंग्रेजी में उच्च व मध्यम वर्ग के जो बच्चे शिक्षा ले रहे हैं, वे निश्चय ही अपनी परम्परागत संस्कृति से कोसो दूर हो चुके हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी भाषा एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जो पूरे देश को एक कड़ी में पिरोता है। यदि यह कमजोर होती है, तो जाहिर सी बात है देश भी कमजोर हो जाएगा। इसके विकास के प्रयास हमें निरंतर करते रहना चाहिए। वर्तमान समय के सन्दर्भ में यह भी कहना समीचीन होगा कि आज जो लोग प्रत्येक हिन्दी दिवस पर हिन्दी का रोना रोते हैं, वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि आज हिन्दी ने विश्वपटल पर अपना सम्मानित स्थान पा लिया है। सोशल साइट्स फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग या वाहट्सएव के माध्यम हिन्दी फल-फूल रही है। अन्य देशों जैसे जापान, चीन, ब्रिटेन आदि विकसित देशों में हिन्दी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। परन्तु इतने से ही संतुष्ट होने वाली बात नहीं है क्योंकि अभी भी हिन्दी अपने ही देश में राष्ट्रभाषा बनने हेतु संघर्षरत है। हिन्दी को अपने गंतव्य पर पहुंचे इसके लिए लगातार हमें सद्प्रयास करना होगा। हम हिन्दुस्तानी है तो हमार यह नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है कि हम हिन्दी के लिए धरातल पर सार्थक प्रयास करें। प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा मनाते हुए यह बात सदैव हमारे स्मरण में रहनी चाहिए। सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। कम से कम वो लोग जो हिन्दी के कारण वेतन पा रहे हैं, वे हिन्दी हेतु गंभीरता से कोई रचनात्मक कार्य करें। वर्तमान में साधारण रूप से हिन्दी वर्तनी में जो दोष आ रहे हैं, निश्चय ही हिन्दी के विकास में मुख्य बाधक कारण है। इसके निराकरण हेतु विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में कम से कम स्नातक स्तर पर सामान्य हिन्दी को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। ऐसा ही सराहनीय प्रयास हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखण्ड द्वारा किया गया है। सत्र 2015-16 से सामान्य हिन्दी को बी.ए.-बी.कॉम. के प्रथम व द्वितीय सेमेस्टर में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जा रहा है। ऐसे ही प्रयास हिन्दी के विकास व प्रचार-प्रसार में कारगार साबित होंगे।

डॉ. राम भरोसे
असि. प्रोफेसर (हिन्दी-विभाग)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी-गढ़वाल
$919045602061,
                                                                                                       कतण्तंउइींतवेम2012/तमकपििउंपसण्बवउ

9 comments:

  1. एक हिंदी विभाग के प्रोफेसर की हेसियत से अच्छा है. मौर्य साम्राज्य के तीसरे चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने बौद्ध धमम अपनाने के पश्चात 84000 चैत्यों (बौद्ध मंदिरों), स्तूपों, विहारों और शिलालेखों का निर्माण करवाया. ये सभी उस समय प्रचलित जनभाषा पाली में अंकित है जो मौर्य वंश के दसवें राजा के सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने धोखे से उसकी हत्या के बौद्ध भिक्खुओं को चुन चुन कर हत्या करवाई. भारत से बौद्ध धम्म विलुप्त हो गया परन्तु जो अहिंसक बौद्ध भिक्खु जान बचाने में कामयाब हुए वे दक्षिण एशिया के देशों में फैल और उनके साथ बौद्ध धम्म भी जहां जहां पहुंचा, खुशहाली बढ़ती गई. पाली भाषा में लिखित पुस्तकों, पुस्तकालयों तो क्या, नालन्दा विश्वविद्यालय आदि को नष्ट कर दिया गया, जला दिया गया. आज भी पाली भाषा का ज्ञान-विज्ञान किताबों में उपलब्ध है जिसे पढ़कर बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने 'The Buddha And His Dhamma' की रचना की. English-पाली और पाली-English शब्दकोष लिखे. युवाओं को पाली भाषा सिखनी चाहिए, अगली पीढ़ी के बच्चों को सिखानी चाहिए ताकि वे बौद्ध विहारों आदि जाएं तो उन पर लिखित भाषा को समझ सकें, समझा सकें ! इति !!

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  2. Very right and nice attempt sir have a deep knowledge of subject

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